Dollar का दबदबा खत्म करने के लिए रूस और चीन का अहम कदम
नयी दिल्ली। रूस और चीन ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को डी-डॉलराइज (लेन-देन में अमेरिकी डॉलर से दूरी बनाना) करने के लिए जोर दिया है, जिससे डॉलर अभूतपूर्व तनाव में है। इस कदम से दोनों एशियाई देशों के "वित्तीय गठबंधन" में आने में मदद मिली है। इस महीने रूस के केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किए गए डेटा के अनुसार वर्ष की पहली तिमाही में रूस और चीन के बीच डॉलर में हुए कारोबार की मात्रा पहली बार रिकॉर्ड 50 प्रतिशत से कम हो गई। अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल दोनों देशों के बीच केवल 46 प्रतिशत सौदों के लिए किया गया, जबकि यूरो में किया गया व्यापार 30 प्रतिशत के ऑल-टाइम हाई तक पहुंच गया। दोनों देशों के बीच रूसी रूबल और चीनी युआन का उपयोग रिकॉर्ड 24 प्रतिशत व्यापार के लिए किया गया।
डॉलर से दूरी एक नाटकीय बदलाव
डॉलर से दूरी का ये एक नाटकीय बदलाव है। नाटकीय इसलिए क्योंकि चीन और रूस के बीच सिर्फ 5 साल पहले 2015 तक 90 प्रतिशत कारोबार डॉलर में ही हुआ है। 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद से डॉलर का अंतर्राष्ट्रीय बाजारों पर दबदबा रहा है। 1973 के बाद से पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन (ओपेक) ने अमेरिकी डॉलर में तेल की बिक्री की कीमत तय की है, जिसे "पेट्रोडोलर" भी कहा जाता है। अमेरिकी पेट्रोज़ में इन पेट्रोडॉलरों का व्यापक रूपांतरण अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ रहा। इसने अमेरिका के भारी घाटे के व्यय की फाइनेंसिंग में एक प्रमुख भूमिका निभाई है।
डॉलर से बचते रहे हैं कुछ देश
दशकों से रूस, चीन, ईरान, वेनेजुएला और अन्य संशोधनवादी शक्तियों ने अमेरिकी डॉलर को बायपास करने की मांग की है। लेकिन डॉलर अपनी मजबूत स्थिति से हटाए जाने के प्रयासों के खिलाफ दमदार साबित हुआ है। इसका कारण अमेरिकी अर्थव्यवस्था का आकार, अमेरिकी बाजारों का वर्चस्व, लंबे समय से चली आ रही वैश्विक वित्तीय गतिविधियों का मोमेंटम और एक वैकल्पिक मुद्रा की विफलता रहा है। डॉलर के एक भरोसेमंद मुद्रा के रूप में देखा जाता है।
यूरो है डॉलर के मुकाबले लायक
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार यूरो वैश्विक मुद्रा भंडार में प्रतिशत के लिहाज से दूसरी सबसे बड़ी मुद्रा है। केंद्रीय बैंक के पास 60 फीसदी डॉलर के बाद यूरो की मात्रा 20 प्रतिशत है। यूरोपीय संघ के नीति निर्माताओं द्वारा हाल के प्रयासों के साथ संयुक्त वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करने और पैन-यूरोपीय बॉन्ड जारी करने और रूस और चीन द्वारा यूरो के उपयोग को बढ़ाने के प्रयासों से ये महाद्वीपीय मुद्रा डॉलर के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकती है।
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